वसन्त

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ये  वसन्त है ,
जब भू धरा अपने मृत अंशो को , त्याग देतीं है पुनर्जीवन के लिए,
प्रकृति ओढ़ती है नयापन
भूल के सब बीते विपद आपद
नवजीवन नवप्रारंभ होता है
बीते कालक्रम में खोए होते है ;इसने अपने कई अंश … जल में ,ताप में ,शीत में ..
सब स्वीकार्य भाव से ,
वो झेल कर सब प्रहार पुनः उठती है
नूतन कोंपल नूतन आशा पुष्प नए
वृक्ष वृक्ष सब पात नए ..
नाचेगी बालि खेत खेत ;वही जो वर्षभर पुरेगी सबका पेट ..
महकेगी क्यारी हर एक ले कर सुगंध कर के सब को एकमेक…
झर जाएँगे वे पात पुष्प जो जी चुके जीवन शेष  दे कर नश्वरता का संदेश …
मृदा पलटेगी एक करवट …परिवर्तन है अटल अनिवार्य ये ले कर एक रट
मूल नहीं बदलता ..
. आधार नहीं बदलता..
बिसरा के सब गत विलाप रुदन फिर प्रारम्भ हुआ ..श्रृँगार  धरा माँ का ….
फिर फूटेगी सृजन फुहार
फिर होगी जीवन की भौर
और फिर शुरू होगा एक नया दौर
ये वसन्त है …नूतन का प्रारम्भ है ..
और समापन बीते काल के विषाद का …
क्यूँ ना मानव भी सीखे इस प्रकृति से ..
मिटाना कलुष बीते काल का ..
सिखे सँवारना स्वयं को नव विचार दिशा से ..
नए भाव नए मन से …
बदले आत्मा की अनुभूति ,वस्त्र नहीं …
बदले मुख के भाव आभूषण नहीं ..
बदले वचन ना बदले भाषा….
मिटाए विषाद ,भेद विरोध ना के हटाए सम्बंध अपनत्व …
पकड़े क्षमा विधान ना के भाव प्रतिशोध प्रधान.. वसन्त है ये बदलें भाव को बदलें मन को … उत्सव है ये नवचेतन का .. नवजीवन का
ये वसन्त है …सूचक परिवर्तन का  …
(लक्ष्मी नन्दवाना )[/vc_column_text][/vc_column][/vc_row]

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